Thursday, May 28, 2015



भूमि अधिग्रहण बिल में हो सकते है बड़े ,अरुण जेटली जी ने किसान प्रतिनिधियों के साथ बैठक में दिए संकेत---------भाकियू
वार्ता में भारतीय जनता पार्टी के किसान मोर्चा के रास्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री नरेश सिरोही की अहम् भूमिका 





आज दिनांक 28 मई 2015 को भूमि अधिग्रहण बिल 2015 पर केन्द्रीय मंत्री अरूण जेटली वित्त मंत्री भारत सरकार, के द्वारा आयोजित किसान प्रतिनिधियों की बैठक में चै0 राकेश टिकैत व अजमेर सिंह लाखोवाल(अध्यक्ष पंजाब प्रदेश) सहित रतन मान, राजबीर सिंह, धर्मेन्द्र मलिक, विजय तालान व अशोक बालियान ने भाग लिया। भारतीय किसान यूनियन के नेताओं ने सामाजिक प्रभाव का आकलन निजी अधिग्रहण में किसानों की सहमति, 5 साल में किसानों की जमीन न लौटाये जाने(धारा 24,2), किसानों को चार गुना मुआवजा दिये जाने का स्पष्ट उल्लेख न दिये जाने पर कडी आपत्ति जताते हुए भूमि अधिग्रहण विधेयक 2015 के सम्बन्ध में एक विस्तृत मांग पत्र भी सौंपा। भाकियू की तरफ से चै0 राकेश टिकैत(राष्ट्रीय प्रवक्ता भाकियू), अजमेर सिंह लाखोवाल(अध्यक्ष पंजाब प्रदेश) व धर्मेन्द्र मलिक ने अपने विचार  रखें।
भारत सरकार की ओर से केन्द्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली जी ने किसानों को आश्वस्त किया कि सरकार किसानों के विरोध में कोई कार्य नहीं करना चाहती है। किसानों को जिन-जिन बिन्दुओ पर आपत्ति हैं सभी किसान संगठन उन विषयो पर एक कमेटी का गठन कर उन बिन्दुओ पर किसान हित में परिभाषित कर अपनी सहमति बना ले। इसके बाद पुनः एक बैठक कर भारत सरकार उन बिन्दुओ को किसानों की इच्छानुसार परिभाषित करने के लिए तैयार है। जिस पर बैठक में उपस्थित किसान प्रतिनिधियो ने बहुत जल्द बैठक कर सहमति बनाकर दोेबारा बैठक करने की बात करते हुए मीटिंग को समाप्त कर दिया गया। भूमि अधिग्रहण बिल 2015 पर आज अरूण जेटली जी के साथ सफल बैठक के आयोजन पर भाजपा किसान मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व डी.डी किसान चैनल के सलाहकार श्री नरेश सिरोही जी का चै0 राकेश टिकैत जी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सिरोही जी हमेशा किसानों कि वकालत करते रहते है। यह बैठक सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय में आयोजित की गई थी।
                                                                            भवदीय
                                                                                 ;धर्मेन्द्र मलिक


मई २८, २०१५

श्री अरुण जेटली
वित्त मंत्री,
भारत सरकार

विषय : भूमि अधिग्रहण बिल २०१५ पर हमारी आपति और सुझाव

आदरणीय अरुण जेटली जी,

भूमि अधिग्रहण बिल, २०१५ को संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया है, इस बात का हम स्वागत करते हैं | लेकिन दूसरी तरफ आपकी सरकार ने तमाम विरोधों के बावजूद एक बार फिर से किसान - मज़दूर विरोधी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया, इस बात का हम विरोध भी करते है ।  मालूम हो की 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अंतर्गत जबरनअनुचित और अन्यायपूर्ण तरीके से जमीन अधिग्रहण के अनुभवों के आधार परविविध किसान संगठनों के लम्बे संघर्ष के बाद भूमि अधिग्रहणपुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में समुचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था । एक दशक तक चले अभूतपूर्व देशव्यापी परामर्शसंसद में और बीजेपी के नेतृत्व वाली दो स्थायी समितियों में बड़े पैमाने पर बहस के बाद ही 2013 का यह भूमि अधिग्रहण अधिनियम बनाउस वक्त वर्तमान लोकसभा सभापति और स्थायी समिति की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के साथ बीजेपी तहेदिल से अधिनियम के समर्थन में थीऔर खुलकर इस कानून के प्रावधानों का समर्थन कर रही थी | आपने भी उस समय विपक्ष नेता के तौर पर बहुत सारे प्रावधानों को सहमती दी थी | पर आज अब एक झटके में लोकतान्त्रिक ढांचे को अनदेखा करके, 2013 के अधिनियम के सभी लाभों को खत्म करते हुए, 1894 के कानून पर वापस आने वाला पह्ला अध्यादेश आपकी सरकार 31 दिसम्बर को लाई |

हम मानते हैं की 2015 का भूमि अध्यादेश / अधिनियम पूरी तरह सेसमुचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार भूमि अधिग्रहणपुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013, का और अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण के खिलाफ सालों के संघर्ष का मजाक है । इससेआपकी सरकार लोगों के हितों की पूरी अनदेखी करते हुएकिसी भी कीमत पर कॉर्पोरेट के हितों का विस्तार करने के अपने संकल्प की पुष्टि ही हुइ हैऔर साथ ही इसमें इस बात का संकेत भी मिलता है कि मौजूदा कॉर्पोरेट-सरकार संबंधों में किसी भी तरह के पारम्परिक लोकतान्त्रिक और भारतीय संविधान के ढांचे से रुकावट नहीं आने वाली है.

इस अधिनियम के प्रावधान किसानों की बिना अनुमति के उसकी ज़मीन छीनकर कम्पनियों को दे देंगे और दूसरी तरफ बहु फसली ज़मीन या फिर ज़रुरत से ज्यादा ज़मीन का अधिग्रहण भी social impact assessment के प्रावधान को हटाने के कारण लागू हो जाएगा | 

सरकार ने अध्यादेश में जो संशोधन भी लायें है वह सिर्फ कागजी ही दिखता है क्योंकि वह मूल रूप से २०१३ के कानून के मूल उद्देश्यों को खारिज करता है. खेती की ज़मीन का हस्तांतरण, खाद्य सुरक्षा की देखी, लोगों की जीविका, जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण पर रोक, अधिग्रहित भूमि को किसानों को वापसी आदि जैसे मुद्दों को २०१३ का कानून कुछ हद्द तक सम्बोधित करता था, पर वह भी ख़तम कर दिया गया है |

यह सरकार भी जानती है कि जमीनें पीढ़ी दर पीढ़ी आजीविका मुहैय्या कराती हैं और मुआवजा कभी भी वैकल्पिक आजीविका नही दे सकते हैं ! यह सभी जानते हैं कि जब भारत में कृषि योग्य ज़मीनें व किसान नही बचेंगें तो देश की खाद्य संप्रभुता समाप्त हो जायेगी और देश खाद्य के मामले ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों पर निर्भर हो जाएगा, तथा साथ साथ ज़मीन से जुड़े हुए भूमिहीन किसान और खेत मज़दूर तथा ग्रामीण दस्तकार ,छोटे व्यापारी देश के नक़्शे से ही गायब हो जायेंगे। उसके बाबजूद भी जमीनों के चार गुना मुआवजा देकर अधिग्रहण की बात कर रही आपकी सरकार अपने आप को किसानो का सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं, जबकि सच्चाई तो यह है कि भाजपा शासित राज्यों की सरकारे अति उपजाऊ ज़मीन का भी मुआवजा मात्र दो से ढाई गुना पर निपटा रही हैं |  

हम आपके सामने कुछ सुझाव रखना छाते हैं और बतलाना चाहते हैं की सरकारी संशोधन सिर्फ दिखावे हैं, आज जरूरत है की कृषि संकट को दूर किया जाए और खेती एक जीविका का उत्तम साधन बन सके लोगों के लिए |






संशोधन
 मूल अधिनियम
1.     
अध्यादेश में  परियोजनाओं की एक विशेष श्रेणी (नया सेक्शन 10अ) बनाई गई है जिसमें सहमति लेने, सामाजिक प्रभाव आंकलन की जरुरत, विशेषज्ञ समूह से  समीक्षा कराने, बहुफसलीय/ खेती की जमीन लेने की  छूट है.   

इस विशेष श्रेणी के पांच विषय/आइटम हैं: औद्योगिक गलियारे  और आधारभूत सुविधाओं वाली परियोजनाएं जिनमें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की परियोजनाएं शामिल हैं. अधिकांश अधिग्रहण इन्हीं दो श्रेणियों के अंतर्गत होने का असर यह होगा कि 2013 के मूल कानून के सुरक्षा उपाय पूरी तरह ख़त्म  हो जायेंगे.

‘सोशियल इन्फ्रास्ट्रक्चर’ को इस नई श्रेणी में शामिल किया गया था और बाद में सरकार द्वारा ही इसे वापस ले लिया गया.
2013 के कानून में इस तरह का कोई क्लॉज़ नहीं था. ये सभी गतिविधियाँ अध्याय 2 और 3 के लिए निर्धारित  प्रक्रिया को पूरा करने के लिए आवश्यक थीं.

सेक्शन 2(2) में परियोजना की मंजूरी हेतु (70-80%) प्रभावित परिवारों से सहमति लेना आवश्यक था.

एक नया प्रावधान जोड़ दिया गया है इससे सेक्शन 10अ से उन सभी निर्धारित गतिविधियों को हटा दिया गया है जो  सहमति के दायरे में आती थीं.
2.     
10अ की नई श्रेणी में बचाव के नए सेक्शन जोडे गए हैं:  अध्यादेश के जरिये नये सेक्शन में दो नए प्रावधान सरकार ने जोड़े.

मूलतः इसके जरिये सरकार यह सुनिश्चित करने की कोशिश करती है कि परियोजना के लिए ली जाने वाली जमीन के लिए कम से कम सवालात हों. दूसरा प्रावधान सरकार को बंजर जमीन का सर्वेक्षण करने का आदेश देता है

2013 के कानून में मौजूद सामाजिक प्रभाव आंकलन को  असावधानी से  जोड़ा गया है.

परियोजनाओं को सामाजिक प्रभाव आंकलन प्रक्रिया के दायरे से बाहर रखने के लिए सरकार सामाजिक प्रभाव आंकलन की निर्धारित छह शर्तों में से एक शर्त को ही शामिल किया.     

सामाजिक प्रभाव आंकलन को लागु करने की बजाय सरकार ने उसके प्रति उठने वाली चिंताओं को दबाने के लिए इसे सूक्ष्म और तुच्छ बना दिया.
3.     
पहले के क्लॉज़ में महत्वपूर्ण संशोधन सेक्शन 24(2) शामिल किया गया. सेक्शन में संशोधन करके मुकदमेबाजी के समय को बाहर रखा गया जहाँ स्थगन आदेश की अवधि को पूरा करना आवेदक के लिए जरूरी हो.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मुआवजे की परिभाषा को अमान्य घोषित कर दिया गया.

2013 का कानून सेक्शन 24(2) जमीन पे सीधा कब्जा न होने या मुआवजा न दिए जाने की स्थिति में जमीन वापस लौटाने की अनुमति देता है.

अब आवेदकों के लिए नई आवश्यकताओं को पूरा करना और भी मुश्किल कर दिया गया.

कानून यह बताता कि देय मुआवजे का क्या आशय है इसे अदालतों पर छोड़ दिया गया. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुआवजे से आशय है कोर्ट में या सीधा लाभार्थी के खाते में पैसे जमा करना.   
4.     
नियमों का उल्लंघन करने वाले अधिकारीयों के खिलाफ कार्यवाही मंजूरी के बाद ही हो सकेगी. नए संशोधन में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत सरकार से अनुमति मिलने के बाद ही कार्यवाही हो सकेगी.

2013 कानून की धारा 87 में अधिकारीयों को कानून को लागू करने के लिए ज्यादा जवाबदेह बनाया गया  और उल्लंघन किये जाने की स्थिति में दंड का प्रावधान भी है. किसी प्राधिकरण से पूर्व अनुमति लेने की जरुरत नहीं है.

5.     
उपयोग न हुई जमीन को लौटाने के प्रावधान को कमजोर किया गया.  अध्यादेश में संशोधन करके पांच साल की अवधि को खत्म करके ‘परियोजना की स्थापना की निर्धारित अवधि या पांच साल जो भी बाद में हो’ को किया गया.
2013 के कानून की धारा 101 में पांच साल तक जमीन का इस्तेमाल न होने पर वापस करने (जमीन के मालिक को या राज्य भूमि बैंक) की बात कही गयी.
6.     
सरकार को दो से पांच साल में कानून लागू करने का विशेष अधिकार. इससे कानून की व्याख्या करने के लिए जरुरी किसी भी कदम को सरकार ले सकती है.   
2013 के कानून की धारा 113 में सरकार कानून पास होने के दो साल के बाद उसे लागू करने के लिए आवश्यक कोई भी कदम ले सकती है.
7.     
निजी संस्था’ की परिभाषा को विस्तारित किया गया ताकि स्वामित्व, साझेदारी, गैर-लाभ का संगठन या कोई अन्य संस्था को शामिल किया जा सके. इसका मतलब है कि ये संस्थाएं सरकार से सार्वजानिक उद्देश्य के लिए जमीन अधिग्रहित करने के लिए अनुरोध कर सकती हैं. 

2013 का कानून या तो सरकारी संस्थाओं या सरकार के जरिये निजी कम्पनियों के लिए ही जमीन के अधिग्रहण की इजाजत देता है. अधिग्रहण का मतलब यह बिलकुल भी नहीं कि किसी भी संस्था के लिए निर्दयतापूर्वक जमीन ली जाये.
8.     
औद्योगिक गलियारों का विस्तार: सरकार ने औद्योगिक गलियारे के विस्तार की परिभाषा में नया संशोधन किया है अब औद्योगिक गलियारे में सड़क या रेलवे लाईन के एक या दोनों तरफ एक एक किलोमीटर जमीन लेने की बात कही गयी है   
 यह परियोजना गतिविधियों के वृहद विस्तार है जो अध्यादेश के जरिये पहले ही सरकार पेशा कर चुकी है.

सामाजिक प्रभाव आंकलन का भी यह उल्लंघन है जिसमें परियोजना के लिए कम से कम जमीन के विस्तार की बात कही गयी .

इसका बेहतरीन उदाहरण है यमुना एक्सप्रेस-वे, जिसमें एक्सप्रेस-वे परियोजना  के किसी भी तरफ अतिरिक्त जमीन  ली गई और बाद में उसे उत्तर प्रदेश में जेपी ग्रुप को दे दिया गया.
9.     
खेतिहर मजदूर के लिए अनिवार्य रोजगार . एक नया सेक्शन डालकर खेतिहर मजदूर के लिए रोजगार अनिवार्य किया गया.
यह संशोधन गुमराह करने वाला, सतही और एकपक्षीय है. 2013 का कानून दूसरी अनुसूची के आइटम 4 के तहत अनिवार्य रोजगार देता है.

वास्तव में यह और अन्य लाभ, बड़ी संख्या में भूमिहीनों को दिए जाते जिनकी आजीविका प्रभावित होगी न कि सिर्फ खेतिहर मजदूर को (जिन्हें प्रभावित परिवार की श्रेणी में रखा गया ). 

यह संशोधन संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है क्योंकि यह  स्पष्ट किये बिना एक अलग तरह की प्रजाति बनाता है.
10.  
नया सेक्शन 67: अर्धन्यायिक प्राधिकरण अब भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और पुनर्वसन प्राधिकरण के रूप में  जाना जायेगा जो उस जिले में सुनवाई करेगा, जहाँ अधिग्रहण किया जा रहा हो.

इस संशोधन की जरूरत नहीं थी क्योंकि एलएआरआर प्राधिकरण एक स्वतंत्र निकाय है जो स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकता है.

हालाँकि, वास्तविक रूप में यह एलएआरआर प्राधिकरण की संरचना या कार्यों में कमी नहीं कर सका.



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